रविवार

जब मरेंगे तो भगवान की कृपा को प्राप्त करेंगे। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ही यही है।

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Sadhvi Arya Pandit

जिस दिन आपको नियम टूटने पर सही में बुरा लगने लगेगा, उस दिन के बाद नियम टूटेगा ही नहीं।

मान लीजिए आप 500 रुपए के प्रॉफिट के लिए काम करते हैं लेकिन आपको मिला 450 रुपए ही तो आपको कैसा लगेगा। उस 50 रुपए के लिए आप सोचेंगे न की मेरा नुकसान हो गया और ध्यान रखेंगे की आगे से ऐसा घाटा न होने पाए। लेकिन क्या भजन के लिए हम ऐसा सोचते हैं।

अगर हम रोज दिन में 6 बार माला जपते हैं और आज न जपे तो इससे आपको कुछ नही होगा लेकिन यही यदि आपको एक दिन भोजन न मिले तो समझ में आ जाएगा।

भगवान के भजन को छोड़ सकते हैं कोई परेशानी नही, गुरु जी के नियम छोड़ सकते हैं कोई परेशानी नहीं लेकिन हमारा जिस पर महत्व है जैसे संसार के धन पर, संसार के भोगों पर, अगर उसकी थोड़ी सी हानि हो जाए तो हमारा चिंतन खिच जाता है, बर्दाश नहीं होता है।

मतलब आप धन और भोगों से अधिक भगवान का भजन नहीं मानते हैं अगर मान ले तो दिन में अगर भजन नहीं हो पाए तो रात को सोऊंगा नहीं, पहले उस नियम को पूरा करूंगा फिर सोऊंगा क्योंकि ऐसे हमारा नियम टूट जायेगा।

आप सोचेंगे कि आज नहीं किया, कल डबल करेंगे, पर मन तुम्हें फिसला देगा, न डबल होगा न सिंगल। मन बहुत शैतानी करने वाला होता है इसलिए इसे नियम से बांधना चाहिए। नियम जो ले, उसका निर्वाह करें। चाहे जैसी परिस्थिति आ जाए, नियम नहीं छोड़ना है, तभी भगवत प्राप्ति होती है, कोई भी बात तभी सफल होती है जब उसमें नियम हो।

हम लोग नियम का कितना आदर करते हैं। जब नियम का आदर करोगे तब तो नियम चल पाएगा न। लेकिन नियम का आदर ही नहीं है। जो नहीं खाना तो नहीं खाना, जो हमारे मार्ग में बाधक है, नही बात करनी।

हमें भजन करना है, धर्म से और परिवार का पोषण करना है, जितने दिन जिएंगे, नियम से जिएंगे और जब मरेंगे तो भगवान की कृपा को प्राप्त करेंगे। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ही यही है।

अब कुछ नियम ही नहीं है, आज कसम खाई कल तोड़ दी, तो फिर फायदा क्या। जो नियम है ना कि मर चाहे जाओ, 24 घंटे में नियम लिया है, इतनी माला करने का, कुछ भी हो फिर चाहे भूखे रहें, सोए नहीं लेकिन माला पूरी करेंगे।

तो भगवान देख रहे हैं कि भजन के लिए आप कितने पाबंद है तो फिर वो भी कृपा करेंगे। अपने लोगों का क्या है, मनोरंजन स्वभाव है, दो माला घुमा ली, फिर नहीं लगा मन तो छोड़ दिए।

हमें पश्चाताप होता है क्या भजन छूटने में, जलन होती है, कभी रोए कि इतनी बड़ी हानी हो गई, हमारा भजन छूट गया? भजन के प्रति महत्व ही नहीं है, भगवान की तरफ प्रियता ही नहीं है, धर्म का महत्व ही नहीं हैं, नहीं तो रोने क्या एक मिनट के लिए भगवान के लिए याद भूल गई तो मन व्याकुल हो जाए, तड़पने लग जाते।

हमारी बहादुरी से हम अपने मन को चेला बनाकर भगवान का बना दे, तो हम बहादुर है।

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Sadhvi Arya Pandit

जैसे फूल में पराग आ जाता है तो भौरें मंडराने लगते है। ऐसा ही जब भगवान की कृपा होती है भक्ति का प्रचार अपने आप होता है। मतलब भक्ति में तो मुझे जुड़ना है और उसका प्रचार अपने आप हो रहा है। अगर हम प्रचार करने उतरेंगे तो माया इतनी बलवान है कि फिसल के वहां खड़ा कर देगी, जहां हमारे अंदर भक्ति ही नहीं रह जायेगी।

अपने को ठसाठस भक्ति में भर लो। भगवान कहते हैं कि जो मेरी भक्ति से युक्त हैं वो त्रिभुवन को पावन कर सकता है। ये कोई बुद्धिगत नहीं है कि हम किसी को बदल सकते हैं।

हमारी बहादुरी से हम अपने मन को चेला बनाकर भगवान का बना दे, तो हम बहादुर है। हम दूसरों को तो उपदेश दे सकते हैं पर अपने मन को चेला नहीं बना पाए। जब हम अपने मन को उपदेश देकर सही मार्ग पर नहीं चला पाए तो हम दूसरों का क्या कल्याण कर लेंगे।

अगर हमने खीर बनाकर खुद पाई नहीं और रोज खीर का प्रवचन कर रहे हैं तो वो खीर का प्रवचन किसी को नहीं लुभाएगा। पहले डटकर बनाओ और पेट से गले तक पाओ और पचाओ। जब पच जाएगा तब आप खीर का वर्णन करोगे तब आपके मुंह की मुस्कुराहट, पाने का स्वाद दूसरों को आकर्षित कर देगा।

ऐसे ही हम भगवतानंद की बातें तो बहुत करते है पर जब तक खुद भगवतानंद को महसूस नहीं किया तब तक किसी पर प्रभाव नहीं पड़ेगा इसलिए पहले खुद को समर्थ बनाओ।

अध्यात्म में जनकल्याण स्वयं होता है, किया नहीं जाता। जब आप खुद से न महसूस कर लें कि, हे हरि! मैं तो किसी योग्य नहीं, मैं तो आपका एक तुच्छ दास हूं, तब योग्यता आएगी जन कल्याण की। और जब हम जान कल्याण करने उतरेंगे तो देखेंगे कि जन है ही नहीं, क्योंकि उसको सब जगह ही श्री हरी दिखाई देंगे।

तो बात यहां यह समझनी है कि अपना चश्मा ठीक करना है और अपना हृदय भक्ति से भरना है फिर सब मंगल ही मंगल होगा।

कथा व्यास- "साध्वी आर्या पंडित" श्रीमद् भागवत कथा वक्ता 86501 21385 वृन्दावन, ज़िला - मथुरा

गृहस्थी में माया क्या सताती है? मेरा शरीर, मेरी पत्नी, मेरे बच्चे और कुछ ऐसी व्यवस्था हो जाए

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Sadhvi Arya Pandit


सिर्फ गृहस्थ जीवन में नहीं, भगवत मार्ग पर भी माया बहुत परेशान करती है। आप क्या सोचते हो की यह केवल गृहस्थी को ही परेशान करती है पर ऐसा नहीं है, वो तो धज्जियां उड़ा देती है, अभी आपने देखा नही है न क्योंकि आप गृहस्थी में रहते हो।

यह चढ़ते हुए को घसीट के रौंदते हुए हजारों हाथ नीचे दबा दे। अगर कोई बच सकता है तो केवल भगवान की शरणागति से। यहां ज्ञान, विज्ञान, बुद्धि काम नहीं करती।

परंतु जिसकी बुद्धि भगवान के चरणों में अर्पित है वही जीत सकता है। ऐसा नहीं होता है कि केवल गृहस्थ में माया सताती है विरक्ति में नहीं बल्कि यह गृहस्थी में कम सताती है विरक्ति में ज्यादा सताती है।

ऐसा इसलिए क्योंकि गृहस्थी तो चार दिवारी के अंदर है न और विरक्ति मतलब वो उस लाइन से बाहर निकल गया और उसे वापिस से लाइन में लाना है। जैसे कोई योद्धा शत्रु पक्ष की ओर चला गया तो उसे पुनः लाइन में लाना होगा।

लेकिन माया उसके लिए पूरा जोर लगा देगी कि हमारी अधीनता से तुम बाहर कैसे जा रहे हो और उसके जोर को जो सह गया, उसी को महात्मा कहते है।

गृहस्थी में माया क्या सताती है? मेरा शरीर, मेरी पत्नी, मेरे बच्चे और कुछ ऐसी व्यवस्था हो जाए कि खाए, पिए आनंदपूर्वक रहने और घंटा दो घंटा आरती पूजा भी भगवान की करते रहें। सात्विक पुरुषों के अंदर, सबके अंदर यही भावना है कि हे भगवान! भले हमे तुम कुबेर का खजाना मत दो पर इतना हो कि समाज में प्रतिष्ठा बनी रहे, परिवार स्वस्थ रहे। पर ऐसा होगा नहीं, न किसी के साथ होता।

क्योंकि दो कर्मों से हमारा शरीर रचा गया है– पाप और पुण्य। जब पाप का फल आएगा तो भयंकर आएगा। रोग, दुःख, विपत्ति, नाना प्रकार के संकट और जब पुण्य का फल आएगा तो उत्साह, आनंद, उत्सव आदि सब चलेगा। ये दोनों ही चलेंगे जैसे दिन और रात। इसलिए कोई भी ऐसा नहीं है जिसके जीवन में दुःख न आया हो। इस श्रेणी में भगवान ही क्यों न प्रकट हुए और दुःख न आया हो, ऐसा तो नहीं।

हमें तो उतना दुःख आया ही नहीं है जितना भगवान के अवतार लेने पर उनको दुख आया है– चाहे वो कृष्ण अवतार हो या राम अवतार हो। भगवान ने अवतार लेकर बताया है कि दुःख और सुख दोनों चलते रहेंगे।

एक सुख ऐसा भी है जहां इन दोनों का प्रवेश नहीं है उसे कहते हैं भगवतानंद, जो दुख सुख से परे है। जो सुख दुख में समान, लाभ हानि में समान, अजय पराजय में समान, वो परम सुख भगवान का है।

तो अगर गृहस्थी में रहकर भी नाम जप किया जाए, भगवान की आराधना की जाए और यह भाव रखा जाए कि हम भूखे हैं तो आपकी मर्जी, छके है तो आपकी मर्जी, आप जैसे दिला रहे हो, हम राजी है, तो माया पार हो जाओगे।

उनसे मांग ज्यादा रखने से माया पार नहीं होने वाली। वो आपके भजन साधनों से मांग तो पूर्ण कर देंगे लेकिन उसका क्या फायदा। इसलिए भगवान से यह मांगे कि मेरा यह जीवन और इस जीवन के बाद जिसमें मंगल हो वही करना। भले मैं कुछ भी मांगना रहूं, मत देना।

जब हम भगवान के शरण में होंगे, हमें कोई माया परेशान नहीं कर सकती।

कथा व्यास- "साध्वी आर्या पंडित" श्रीमद् भागवत कथा वक्ता 86501 21385 वृन्दावन, ज़िला - मथुरा

मंत्र जप करें या नाम जप, जानिए "साध्वी आर्या पंडित"

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Sadhvi Arya Pandit


फल पर दृष्टि रखना छोड़ दो। हमको सबसे बड़ा फल यह देखना है कि आराध्य देव से मन जुड़ा हुआ है या नहीं।

हमारी जीभ्या, हमारी सर्वेंद्रियां, हमारी चेष्ठा आराध्य देव से जुड़ी हुई है या नही। जिसका लक्ष्य अखंड स्मृति होता है वो इन सब बातों को नहीं देखता। वो देखता है कि हम पद गा रहे हैं तो उनका गा रहे हैं, सेवा कर रहे हैं तो उनकी कर रहे हैं, नाम जप रहे हैं तो उनका कर रहे हैं, नृत्य कर रहे हैं तो उनके लिए कर रहे हैं, व्यापार कर रहे हैं तो उनके लिए कर रहे है। उनसे जुड़ना परमंगल है।

संसार से जुड़ना परम् हानिकारक है। मेन चीज समझनी है कि लक्ष्य पर रहिए तो कभी दुख नहीं होगा, नहीं तो वाचिक जपने से 100 गुना फल उपान्स में है। उपान्स जपने से हज़ार गुना फल मानसिक में है। मानसिक कुछ होता नहीं, तो हो गया फल खत्म।

हम अगर फलों की तरफ दृष्टि रखेंगे तो हमारा भजन सही नहीं हो पाएगा। हमें दृष्टि रखना है आराध्य देव से चित्त जोड़ना है। एक एक वृत्ति प्रभु में जुड़ रही है यही हमारा वर्तमान का फल है।

हम प्रभु का स्मरण कर रहे है, प्रभु का नाम जपते हुए, लीला गहन करते हुए, सेवा करते हुए, हमें यही चाहिए और स्मृति का जो फल होता है वो बहुबंधन से मुक्त होकर भगवान की सेवा में जाना होता है।

उनका नाम, उनका रूप, उनका गुण, उनका लीला ही हमारे चिंतन में चल रही है, बस हमें और कुछ नहीं चाहिए। भगवत स्मृति ही साधना का सार है। हर समय स्मरण में डूबे रहे, इससे बड़ी सिद्धि क्या होगी।

अगर हम सोचते रहेंगे कि पवित्र अवस्था नहीं है, मंत्र जप सकते नहीं, नाम का फल वो है नहीं, तो नाम में अश्रद्धा हो गई, मंत्र जपने का समय नहीं तो सब गड़बड़ हो जायेगा।

हमें प्रभु से जुड़े रहना है। हमारी चित्त वृत्ति प्रभु में जुड़ी रहे। वो नाम के द्वारा, गुण के द्वारा, मंत्र के द्वारा हम प्रभु से जुड़े रहें। ये बात ध्यान रखोगे तो बहुत आनंद रहेगा।

फल में रस होता है और हमारी दृष्टि रस में रहे। रस है प्रिया प्रीतम प्रभु और अगर फल पर दृष्टि रहेगी तो बड़ा कन्फ्यूजन होगा कि इसका फल ये होगा, उसका फल वो होगा, अब ये करना चाहिए पर हो नहीं रहा तो बड़ा परेशान है।

अगर नहीं भी वृद्धि हो रही है तो हम प्रभु के हैं, प्रभु से जुड़े हुए हैं, बस इतने से सर्वमंगल हो जाएगा।

"साध्वी आर्या पंडित" श्रीमद् भागवत कथा वक्ता 86501 21385 वृन्दावन, ज़िला - मथुरा

शास्त्र के अनुसार भगवान आदेश करते हैं कि क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए।

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Sadhvi Arya Pandit

किसने कहा कि घर छोड़ना चाहिए, माता– पिता को छोड़ दो। शास्त्र के अनुसार भगवान आदेश करते हैं कि क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए।

दो मार्ग है– एक है प्रवृत्ति मार्ग और दूसरा है निवृत्ति मार्ग। निवृत्ति मार्ग का अर्थ है सन्यास मार्ग। इस मार्ग पर जब हम चलते हैं तो माता पिता को प्रणाम करके, उनसे अनुमति लेकर आजीवन उनसे न मिलने का वैराग्य लेते हैं।

जिस दिन से जन्म भूमि से निकले, सब खत्म। माता पिता, भाई बहन, बंधु परिवार अब हमारे भगवान के अलावा कोई नहीं। जिस रसोई में बचपन में खेलते हुए भोजन खाया, उससे निकले तो आज तक उस रसोई में कौरा नही तोड़ा।

जिस मां ने पालन पोषण किया, उसी मां के आशीर्वाद से निकले। वो पधारी, क्या हुई जीवन में नहीं देखा। यह है हमारा निवृति मार्ग।

लेकिन गृहस्थ मार्ग पर चल रहे हैं तो माता पिता को भगवान मान कर उनकी सेवा करते हुए खूब नाम जप करो, वहीं भगवत प्राप्ति होगी। ऐसा नहीं है कि प्रवृत्ति मार्ग पर चलोगे तो ही भगवत प्राप्ति हो।

स्वभाव के अनुसार भगवान सब जीव को मार्ग देते हैं। हमारे कुछ पूर्वज का भजन ऐसा रहा होगा कि भगवान ने हमें इस राह पर चलने के लिए रास्ता दिखाया।

पर निवृति मार्ग पर चल कर जो फल मिलता है वो फल तुम्हे प्रवृत्ति मार्ग पर चल कर भी मिल जायेगा। बस अपने माता पिता को भगवान मानो, खूब सेवा करो, कमाओ खाओ, उनको दुलार करो, समाज सेवा में उतर कर आओ और नाम जपने का निरंतर अभ्यास करो, ऐसे भी भगवत प्राप्त हो जाओगे।

जब हम वैराग्य की बात करते हैं तो उनके लिए कहते हैं जिन्होंने वैराग्य पाठ का चयन कर लिया है, जो वैराग्य में चल रहे हैं, जो आगे बढ़ गए हैं। कदम आगे बढ़ गए तो पीछे लौटना नहीं है, चाहे जो हो जाए।

लेकिन आप जिस वेश में हो, उसी के अनुसार चलना चाहिए। इसलिए आपको तो किसी ने आज्ञा नहीं दिया है कि माता पिता को छोड़ दो। अब अगर कोई मनमानी आचरण करे तो किसी का कहां बस है किसी पर।

इसलिए लोगों की कही सुनी पर मत जाइए। अपने मन की सुनो और अपने मार्ग पर चलते जाओ।

"साध्वी आर्या पंडित" 
श्रीमद् भागवत कथा वक्ता,
वृन्दावन, ज़िला - मथुरा - 86501 21385




शनिवार

तुम्हारे रोम रोम में भागवत शक्ति जागृत हो जाएगी।


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Sadhvi Arya Pandit



शक्ति भगवान के अधीन है और समस्त शक्तियों के स्वामी भगवान है। हम भगवान का आश्रय लेते हैं। पिता की प्रॉपर्टी का अधिकार पुत्र ही होता है, हम किसी पड़ोसी के लड़के को तो प्रॉपर्टी का अधिकार नहीं बनाते न। भले ही अपना लड़का कितना भी मूर्ख हो और पड़ोसी की कितना भी होशियार हो लेकिन सरकारी कानून के अनुसार उसी के पुत्र को प्रॉपर्टी का अधिकार है।

ऐसे ही अगर शक्ति हमें चाहिए तो शक्तिमान हमारे प्रभु पिता है, हमारे अंग है, हमारे स्वामी है। पहले यह स्वीकार करो की हमारे मालिक प्रभु हैं। अब स्वामी का खूब दुलार करो, उनकी आज्ञा अनुसार चलो, नाम कीर्तन, गुण कीर्तन करो तो तुम्हें कुछ भी मांगना ही नहीं पड़ेगा। तुम्हारे रोम रोम में भागवत शक्ति जागृत हो जाएगी।

शक्ति का तात्पर्य होता है आध्यात्म बल न कि देह बल। आध्यात्मिक बल जागृत होगा तो कामनाओं का त्याग होगा, दृढ़ों की सहनशक्ति आयेगी, विकारों पर विजय प्राप्त होगी। ये सब भागवत शक्ति है। जो गाली दे रहा है, उसको पलट कर जवाब नहीं दिया, जिसने पीटा उसका मंगल मनाए इसे कहते हैं शक्ति।

ये भागवत शक्ति उसको प्राप्त होती है जो भगवान का निजी दास हो जाता है उसे मांगने की जरूरत नहीं होती। जैसे पिता की संपत्ति पर पुत्र स्वयं अधिकार प्राप्त कर लेता है वैसे ही भगवान की शरणागत, भगवान की समस्त वैभव का वो स्वयं अधिकारी हो जाता है। बस, लाडले प्रभु से अपनापन करने की जरूरत है।

अगर शक्ति को अधीन करना चाहे तो फिर शक्ति तुम्हें नष्ट भी कर देगी। शक्ति को अधीन करना केवल भगवान की बात है, दूसरों की नहीं। बच्चा बन जाओ तो जैसे बच्चा आगे आगे भागता है और मां पीछे पीछे भागती है क्योंकि मां प्यार से अधीन है, बछड़े के शक्ति से नहीं।

ऐसे ही भक्त जहां जहां अपने चरण रखता है भगवान वहां वहां अपने हाथ रख देते हैं। इससे अच्छी शक्ति और क्या हो सकती है कि भगवान पीछे डोल रहे हैं। लेकिन कैसे, प्यार से!

अगर आपने भगवान को अपना जीवनधन माना है तो भगवान ने उसको अपना बना लिया। जैसे बछड़ा आगे उलरते हुए जाता है, उसको मां की चिंता नहीं पर मां पीछे दौड़ रही कि बछड़े को कोई विघ्न न पड़ जाए।

ऐसे ही भक्त को कहीं संकट आया तो भगवान अपने आप आ जाते हैं। इसलिए भगवान का आश्रय ही सबसे बड़ी शक्ति है और भगवान के नाम का सुमिरन भी श्री प्रभु को हृदय में बंधी बना लेता है।

हमको चाहिए कि हम इस तरह शक्ति का आवाह्न करें कि हमारे प्रभु मेरे हैं। शक्ति भगवान के अधीन है, तुम भगवान के अधीन हो जाओ, प्रेम करो तो भगवान की सारी शक्तियां आपको दुलार करने लगेंगी।

"साध्वी आर्या पंडित" 
श्रीमद् भागवत कथा वक्ता,
वृन्दावन, ज़िला - मथुरा - 86501 21385

तब आपको समझ आएगा कि अब तक हम जो मांगते थे वो सब व्यर्थ निकला।


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Sadhvi Arya Pandit


हम सिर्फ सांसारिक सुख ही जानते हैं इसलिए ऐसा होता है। जैसे बालक माता– पिता की गोद में बैठकर खिलौना ही तो मांगेगा, क्योंकि वो उतनी ही बात जानता है, उसकी बुद्धि का विकास नहीं हुआ है।
हम लोग देहाभिमानी जीव है, देहभाव से युक्त हैं। देह भाव में पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियां है तो पूरा का पूरा यंत्र हमारा संसार में ही लगा हुआ है और संसार ही मांगता है। अच्छा देखने को मिले, अच्छा खाने को मिले, अच्छा भोगने को मिले, अच्छा सुनने को मिले, हमारा शरीर सुखी रहे, हमने जिससे संबंध रखें है वो सुखी रहे, इतनी ही भावना है।
सुखी रहने की भावना तो हमारा अधिकार है, पर गलत जगह सुख खोजेंगे तो नहीं मिल पाएगा। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि भगवान ने इस संसार को दुखालय लिखा है और अगर हम यहीं सुख खोजेंगे तो वो नहीं मिल पाएगा।
आज तक सम्पूर्ण सुख किसी को नही मिला। सभी लोग भोग ही रहे हैं लेकिन आज तक क्या मिला, क्या हाथ आया। वही वासना, वही चिंता, वही बल, वही नवीन भोग की चाह।
इसलिए थोड़ा तो बैठ के सोचना चाहिए, कि कुछ होता तो मन कहता न कि इतनी बार भोगा कि अब शांति मिल गई। लेकिन नहीं, जितना भोगो, उतना ही अशांत, जितना भोगो उतना ही खोज और शुरू।
इसका मतलब, दिशा ठीक नही है। दिशा ठीक करो, भगवान के सम्मुख हो, संसार की तरफ मुख करके चलोगे तो अन्त नहीं है। अगर भगवान की तरफ मुख करके चल दिए तो थोड़ी देर तो जलन होगी, जब तक पाप नष्ट नहीं होते।
इसके बाद कदम कदम पर परमानंद है। हृदय शीतल आनंद से भर जाएगा। बार बार प्रभु को प्रणाम करके कहोगे कि प्रभु बचा लिया मुझे।
आप चाहे कामना से युक्त हो, चाहे निष्काम हो, पहले प्रभु की तरफ डट के लगना चाहिए। प्रभु सबके पिता, स्वामी, मालिक, ईश्वर हैं। हमें ईश्वर से कहना चाहिए, की हमे आपका ही ज्ञान है और यही आनंद लगता है और यही मांगेगा भी।
आगे ईश्वर आपका खुद भाव बढ़ाएंगे, तब आपको समझ आएगा कि अब तक हम जो मांगते थे वो सब व्यर्थ निकला।
हम लोग जानते नहीं है इसलिए भोग में लगे हैं, जिस दिन जान जायेंगे, उस दिन इस सांसारिक सुख को खुद फेक देंगे। कहोगे कि, नहीं चाहिए मुझे यह संसार, मुझे तो प्रभु चाहिए।
धीरे धीरे भजन बढ़ाओ, ज्ञान प्रकाशित हो जायेगा तो संसार का महत्व खत्म हो जाएगा। यहां कुछ नही है, जीवन भर लोग यही लगे हैं कि मेरा नाम बड़ा हो जाएगा।
लोग ईश्वर तक का नाम तो ले नहीं रहे हैं तो तुम्हारा नाम कौन लेगा। मर के चले गए सब लेकिन क्या बचा, सब यही पड़ा है।
सीधी बात है धर्मयुक्त आचरण करो, भगवान का भजन करो, भगवान से प्रार्थना करो कि मुझे मार्ग दिखाओ। वो बड़े कृपालु है, ज्ञान रूपी सूर्योदय कर देंगे तो ठीक से चल पाओगे।
"साध्वी आर्या पंडित" 
श्रीमद् भागवत कथा वक्ता,
वृन्दावन, ज़िला - मथुरा - 86501 21385


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जब मरेंगे तो भगवान की कृपा को प्राप्त करेंगे। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ही यही है।

Sadhvi Arya Pandit जिस दिन आपको नियम टूटने पर सही में बुरा लगने लगेगा, उस दिन के बाद नियम टूटेगा ही नहीं। मान लीजिए आप 500 रुपए के प्रॉफिट क...